नेपाल संकट 2025: सिंहासन खाली करो महाराज आ रहे हैं – क्या लौटेगा हिंदू राष्ट्र और राजशाही?
नेपाल में ओली सरकार के पतन के बाद सड़कों पर हिंदू राष्ट्र और राजशाही की मांग तेज हो गई है। जानें क्यों जनता पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की वापसी चाह रही है और क्या नेपाल फिर से हिंदू राष्ट्र बनेगा।

नेपाल संकट 2025:क्या लौटेगा हिंदू राष्ट्र और राजशाही?
delhi/nepal
2:47 PM, Sep 10, 2025
O News हिंदी Desk
सिंहासन खाली करो, महाराज आ रहे हैं… नेपाल में हिंदू राष्ट्र और राजशाही की वापसी की गूंज तेज!
Nepal Crisis 2025: ओली के इस्तीफे के बाद क्या फिर लौटेगा नेपाल में राजतंत्र और हिंदू राष्ट्र का दौर?
काठमांडू, सितंबर 2025। नेपाल की सड़कों पर पिछले कई महीनों से हिंसा और विरोध प्रदर्शन का लावा उबल रहा है। कभी शांति और हिमालय की पवित्रता के लिए पहचाना जाने वाला नेपाल आज आग की लपटों में घिरा हुआ है। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को 9 सितंबर 2025 को इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन इस्तीफे के बाद सबसे बड़ा सवाल यही है – नेपाल का भविष्य किस दिशा में जाएगा? क्या फिर से नेपाल हिंदू राष्ट्र बनेगा? क्या राजशाही की वापसी होगी? या फिर देश अराजकता और अस्थिरता की ओर बढ़ेगा?
नेपाल में हिंसा की चिंगारी कैसे भड़की?
मार्च 2025 से शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों ने देखते ही देखते पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पों में अब तक 22 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 200 से अधिक घायल हुए हैं। राजधानी काठमांडू से लेकर पोखरा और विराटनगर तक भीड़ सड़कों पर उतर आई है। संसद भवन, कांग्रेस पार्टी का दफ्तर और यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के घर में भी आगजनी की घटनाएं सामने आईं।
लोगों का गुस्सा सिर्फ बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर ही नहीं, बल्कि सरकार की सोशल मीडिया बैन नीति पर भी भड़का। ओली सरकार ने दावा किया था कि यह कदम फेक न्यूज और अफवाहों को रोकने के लिए था, लेकिन जनता ने इसे आवाज दबाने की चाल बताया। खासकर जेन-जेड (Gen-Z) पीढ़ी ने इसे अपने अस्तित्व पर हमला माना। नतीजा यह हुआ कि एक्स (Twitter) पर #BringBackMonarchy और #HinduRashtra जैसे हैशटैग वायरल हो गए।
नेपाल में क्यों उठ रही है राजशाही और हिंदू राष्ट्र की मांग?
नेपाल कभी दुनिया का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था और उस पर शाह राजवंश का शासन था। लेकिन 2008 में माओवादी आंदोलन और गृहयुद्ध की पृष्ठभूमि में नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र घोषित कर दिया गया। उस समय उम्मीद थी कि यह बदलाव स्थिरता और लोकतंत्र लेकर आएगा।
लेकिन हकीकत बिल्कुल उलट रही। पिछले 17 सालों में नेपाल ने 14 सरकारें देख लीं। कोई भी सरकार जनता को रोजगार, स्थिरता और विकास नहीं दे पाई। महंगाई बढ़ी, भ्रष्टाचार फैला और जनता का भरोसा टूट गया। यही वजह है कि नेपाल की 81% हिंदू आबादी आज अपनी सांस्कृतिक पहचान वापस चाहती है।
राजशाही समर्थक दल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) और काठमांडू के चर्चित मेयर बालेंद्र शाह खुले तौर पर आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। लोग कह रहे हैं – "कम्युनिज्म खत्म, अब राजा लौटो!"
पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह फिर चर्चा में
राजशाही की बहस होते ही सबसे ज्यादा चर्चा पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की हो रही है। मार्च 2025 में जब वे पोखरा से काठमांडू लौटे, तो हजारों समर्थकों ने उनका स्वागत किया। मई में वे अपने पोते हृदयेंद्र के साथ नारायणहिती शाही महल भी गए और वहां पूजा-अर्चना की।
हालांकि ज्ञानेंद्र ने अभी तक औपचारिक रूप से गद्दी संभालने की कोई इच्छा जाहिर नहीं की है। लेकिन उनकी हर सार्वजनिक उपस्थिति राजभक्तों के लिए किसी संकेत से कम नहीं मानी जाती।
पूर्व युवराज पारस शाह और उनकी बहनें लंबे समय से सिंगापुर में रह रही हैं। वहीं, युवा पीढ़ी का ध्यान अब हृदयेंद्र पर है, जिन्हें "युवराज की अगली पीढ़ी" के रूप में देखा जा रहा है।
सेना की भूमिका: क्या राजशाही की ओर इशारा?
ओली के इस्तीफे के बाद नेपाल की कमान फिलहाल सेना के हाथों में है। सेना प्रमुख ने जब राष्ट्र को संबोधित करते हुए महान शासक पृथ्वी नारायण शाह की तस्वीर के सामने भाषण दिया, तो इसे "राजशाही की तरफ झुकाव" के संकेत के रूप में देखा गया।
विशेषज्ञ मानते हैं कि सेना के लिए सबसे आसान विकल्प होगा – देश को स्थिर करने के लिए राजशाही को फिर से जगह देना।
क्या फिर से बनेगा हिंदू राष्ट्र नेपाल?
राजशाही की बहस के साथ ही हिंदू राष्ट्र की मांग भी जोर पकड़ रही है। नेपाल की जनता का कहना है कि जिस देश में 80% से ज्यादा लोग हिंदू हैं, वहां धर्मनिरपेक्ष मॉडल लागू करने का कोई फायदा नहीं हुआ।
नेपाली समाज के एक बड़े हिस्से का मानना है कि माओवादी विचारधारा और चीन के दबाव ने नेपाल को अस्थिर बना दिया है। वहीं, भारत समर्थक तबका चाहता है कि नेपाल अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटे।
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चुनौतियां क्या हैं?
- संविधान की बाधा – नेपाल का वर्तमान संविधान राजशाही की इजाजत नहीं देता। अगर राजशाही लौटानी है तो नया संविधान बनाना होगा।
- माओवादी और चीन का दबाव – चीन नहीं चाहेगा कि नेपाल हिंदू राष्ट्र बने, क्योंकि इससे भारत का प्रभाव बढ़ेगा। माओवादी गुट भी राजशाही के खिलाफ सड़कों पर उतर सकते हैं।
- राजनीतिक विभाजन – कांग्रेस, सीपीएन-यूएमएल और अन्य दल लोकतांत्रिक व्यवस्था बचाने के लिए साथ आ सकते हैं।
जनता का गुस्सा, नेताओं की बेचैनी
नेपाल के आम लोग साफ कह रहे हैं – "हमें रोजगार चाहिए, स्थिरता चाहिए और भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहिए।" लेकिन राजनीतिक दल इस मौके को अपने-अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने साफ कहा है – "नेपाल की असली पहचान हिंदू राष्ट्र और राजशाही है। लोकतंत्र ने सिर्फ अस्थिरता दी है।"
दूसरी ओर वामपंथी दलों का कहना है कि – "राजशाही की वापसी नेपाल को 50 साल पीछे धकेल देगी।"
सोशल मीडिया: आंदोलन का असली हथियार
ओली सरकार का सोशल मीडिया बैन उल्टा पड़ गया। यही फैसला सबसे बड़ा कारण बना सरकार के पतन का।
एक्स और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म पर नेपाल के युवाओं ने राजशाही और हिंदू राष्ट्र के समर्थन में कैंपेन चलाया। #BringBackMonarchy और #HinduRashtra लगातार ट्रेंड करने लगे। यह पहला मौका है जब डिजिटल युग ने नेपाल की राजनीति की दिशा बदल दी।
आगे क्या? चुनाव, राजशाही या अराजकता?
नेपाल का अगला आम चुनाव 2027 में होना है। लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए जल्दी चुनाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
विशेषज्ञ तीन संभावनाएं मान रहे हैं –
- जल्दी चुनाव – ताकि जनता नई सरकार चुन सके।
- राजशाही की वापसी – जन दबाव और सेना का झुकाव इसे संभव बना सकता है।
- अराजकता और अस्थिरता – अगर राजनीतिक दल और राजभक्त आमने-सामने आ गए तो स्थिति और बिगड़ सकती है।
निष्कर्ष: सिंहासन की ओर बह रही है हवा
नेपाल का भविष्य अभी अनिश्चित है। लेकिन यह साफ है कि जनता का गुस्सा अब लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ हो चुका है। लोग मानते हैं कि जब से राजशाही गई, तब से देश की हालत बिगड़ी।
पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह और उनके पोते हृदयेंद्र के नाम पर जनता लामबंद हो रही है। सेना का रुख भी किसी न किसी रूप में राजशाही की तरफ इशारा करता दिख रहा है।
नेपाल में चाहे चुनाव हों या नया संविधान बने, एक बात तय है – "सिंहासन खाली करो, महाराज आ रहे हैं…" की गूंज अब सिर्फ नारा नहीं, बल्कि नेपाल की सड़कों पर हकीकत बनती जा रही है।