बिहार SIR पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला..
सुप्रीम कोर्ट ने बिहार SIR मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए आधार कार्ड को 12वें दस्तावेज के रूप में मान्यता दी है। अब आधार से मतदाता सूची में नाम जुड़वाना संभव होगा, हालांकि यह नागरिकता का सबूत नहीं होगा।

बिहार SIR पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला..l symbolic pics
bihar/delhi
3:54 PM, Sep 8, 2025
O News हिंदी Desk
बिहार SIR पर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: आधार कार्ड होगा 12वां पहचान दस्तावेज, लेकिन नागरिकता का सबूत नहीं
नई दिल्ली/पटना। बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अहम फैसला सुनाया। अदालत ने भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India - ECI) को निर्देश दिया कि वह आधार कार्ड को 12वें दस्तावेज के रूप में स्वीकार करे। यानी अब बिहार में मतदाता सूची में नाम जोड़ने या संशोधित कराने के लिए आधार कार्ड को भी पहचान के वैध प्रमाण पत्र के तौर पर पेश किया जा सकेगा।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आधार को नागरिकता का सबूत नहीं माना जा सकता। अदालत का कहना है कि चुनाव आयोग को अपने अधिकारियों को यह अधिकार देना होगा कि वे आधार की प्रामाणिकता की जांच करें और केवल वैध आधार को ही पहचान प्रमाण के रूप में स्वीकार करें।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच का आदेश
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच ने सुनाया, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची शामिल थे। सुनवाई के दौरान बेंच ने साफ कहा कि निर्वाचन आयोग की सूची में अब तक 11 दस्तावेज शामिल थे, जिनके आधार पर पहचान साबित की जा सकती थी। इनमें से सिर्फ पासपोर्ट और जन्म प्रमाणपत्र ही नागरिकता साबित करते हैं, जबकि बाकी किसी भी दस्तावेज से सीधे तौर पर नागरिकता का प्रमाण नहीं मिलता।
इस पर अदालत ने निर्देश दिया कि आधार को 12वें दस्तावेज के रूप में जोड़ा जाए और अधिकारियों को आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किए जाएं ताकि गरीब और ग्रामीण तबके के लोगों को मतदाता सूची से बाहर न किया जाए।
कपिल सिब्बल ने गरीबों के बहिष्कार पर जताई चिंता
सुनवाई के दौरान आरजेडी (RJD) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने पक्ष रखा। उन्होंने अदालत को बताया कि निर्वाचन रजिस्ट्रेशन अधिकारी (ERO) और बीएलओ (BLO) कई बार आधार को अकेले दस्तावेज के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने कोर्ट में उन मतदाताओं के शपथपत्र भी दाखिल किए, जिनके आधार को मान्यता नहीं दी गई थी।
सिब्बल ने कहा, “आधार आज देश का सबसे सार्वभौमिक दस्तावेज है। अगर इसे स्वीकार नहीं करेंगे तो शामिलीकरण (enrollment) की प्रक्रिया का क्या मतलब रह जाएगा? यह गरीबों को मतदाता सूची से बाहर करने की साजिश जैसी लगती है।”
उनका तर्क था कि आधार कार्ड गरीब और ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक उपलब्ध दस्तावेज है, और इसे अस्वीकार करना लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है।
चुनाव आयोग का पक्ष: आधार सिर्फ पहचान, नागरिकता नहीं
चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने दलीलें दीं। उन्होंने अदालत को बताया कि आयोग ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि आधार को पहचान के दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाएगा।
द्विवेदी ने कहा कि आयोग ने इस संबंध में विज्ञापन जारी किए हैं ताकि आम जनता को जानकारी मिल सके। उन्होंने दोहराया कि “आधार नागरिकता का सबूत नहीं है, लेकिन पहचान के लिए इसे वैध रूप से इस्तेमाल किया जाएगा।”
सुप्रीम कोर्ट का संतुलित रुख
सुनवाई के दौरान अदालत ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। जहां एक ओर उसने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि आधार को 12वें दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया जाए, वहीं दूसरी ओर उसने यह भी स्पष्ट किया कि केवल आधार के आधार पर किसी को भारतीय नागरिक नहीं माना जा सकता।
जस्टिस बागची ने कहा, “आयोग की सूची में मौजूद 11 दस्तावेजों में से भी सिर्फ पासपोर्ट और जन्म प्रमाणपत्र ही नागरिकता साबित करते हैं। बाकी दस्तावेज महज पहचान के प्रमाण हैं। इसलिए आधार को भी उसी श्रेणी में शामिल किया जा सकता है।”
बिहार में क्यों अहम है यह फैसला?
बिहार की राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में यह फैसला कई मायनों में महत्वपूर्ण है। राज्य में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर और गरीब तबके के लोग रहते हैं, जिनके पास पासपोर्ट या जन्म प्रमाणपत्र जैसे दस्तावेज नहीं होते। ऐसे में उनका आधार ही सबसे महत्वपूर्ण पहचान दस्तावेज बन जाता है।
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इस फैसले से उन लोगों को राहत मिलेगी, जिन्हें पहले मतदाता सूची में शामिल होने से वंचित किया जा रहा था। अब वे आधार कार्ड दिखाकर आसानी से नाम जुड़वा सकेंगे।
नागरिकता और मताधिकार पर बहस
यह मामला सिर्फ आधार तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे नागरिकता और मताधिकार की बहस भी जुड़ी है।
- एक ओर यह सवाल उठता है कि क्या आधार को नागरिकता का सबूत माना जाना चाहिए।
- दूसरी ओर गरीब और वंचित तबके की आवाज है कि अगर आधार को भी मान्यता नहीं दी जाएगी, तो उनके पास विकल्प ही क्या बचेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि आधार सिर्फ पहचान है, नागरिकता का सबूत नहीं। लेकिन साथ ही गरीबों को उनके मताधिकार से वंचित होने से भी बचाया है।
राजनीतिक संदेश और प्रतिक्रियाएँ
इस फैसले के राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं।
- आरजेडी ने इसे गरीबों और आम मतदाताओं के लिए जीत बताया।
- वहीं, बीजेपी और एनडीए खेमे का कहना है कि अदालत ने जो संतुलित फैसला दिया है, वह पारदर्शिता और निष्पक्षता के लिए जरूरी था।
हालांकि, विपक्ष का तर्क है कि अगर आधार को पहले से ही पहचान के लिए मान्यता मिली होती तो हजारों लोग मतदाता सूची में शामिल होने से वंचित नहीं होते।
आम जनता पर असर
बिहार की आम जनता, खासकर ग्रामीण इलाकों और प्रवासी मजदूरों को इस फैसले से बड़ी राहत मिलेगी।
- अब उन्हें पासपोर्ट या जन्म प्रमाणपत्र जैसे मुश्किल दस्तावेज जुटाने की जरूरत नहीं होगी।
- जिनके पास सिर्फ आधार है, वे भी चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो सकेंगे।
- यह कदम लोकतंत्र को अधिक समावेशी बनाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के निहितार्थ
- लोकतांत्रिक अधिकार की रक्षा: गरीब और वंचित तबके को मताधिकार से वंचित होने से रोका गया।
- कानूनी स्पष्टता: आधार को नागरिकता का प्रमाण न मानने की स्थिति बरकरार रही।
- प्रशासनिक पारदर्शिता: अधिकारियों को आधार की प्रामाणिकता जांचने का अधिकार मिला।
- राजनीतिक संतुलन: न तो गरीबों को बाहर किया गया और न ही नागरिकता पर विवाद खड़ा किया गया।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बिहार ही नहीं, बल्कि पूरे देश की चुनावी प्रक्रिया के लिए अहम है। अदालत ने यह सुनिश्चित किया है कि कोई भी भारतीय नागरिक, खासकर गरीब और वंचित तबका, पहचान की कमी के कारण लोकतंत्र की मुख्यधारा से बाहर न हो।
हालांकि, अदालत ने यह भी साफ किया है कि पहचान और नागरिकता दो अलग-अलग चीजें हैं। आधार पहचान का दस्तावेज है, नागरिकता का सबूत नहीं। यह संतुलित फैसला न सिर्फ चुनाव आयोग की जिम्मेदारियों को और स्पष्ट करता है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी मजबूत करता है।